डॉ. भीमराव अंबेडकर: राष्ट्र निर्माण के वास्तविक आयाम

परिचय

जब हम राष्ट्र निर्माण में डॉ. भीमराव अंबेडकर के योगदान की चर्चा करते हैं, तो अक्सर उन्हें संविधान निर्माता तक सीमित कर देते हैं। परंतु डॉ. अंबेडकर की भूमिका इससे कहीं अधिक व्यापक और गहन है। उनका जीवन, उनके विचार और उनके संघर्ष भारतीय लोकतंत्र की आत्मा को आकार देने वाले शक्तिशाली स्रोत रहे हैं। इस ब्लॉग में, हम उनके योगदान को एक व्यापक और यथार्थपरक दृष्टि से समझने का प्रयास करेंगे।

डॉ. अंबेडकर: सामाजिक क्रांति के अग्रदूत

डॉ. अंबेडकर का जीवन सामाजिक अन्याय के खिलाफ एक अनवरत संघर्ष की कहानी है। छुआछूत, जातिगत भेदभाव, धार्मिक रूढ़िवादिता — इन सबके विरुद्ध उन्होंने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर व्यापक लड़ाई लड़ी। उन्होंने मंदिर प्रवेश आंदोलन, सार्वजनिक जल स्रोतों पर अधिकार, और दलित समाज में आत्म-सम्मान जाग्रत करने के लिए संघर्ष किया। उनका प्रसिद्ध नारा “शिक्षित बनो, संघर्ष करो, संगठित रहो” केवल शब्द नहीं, बल्कि सामाजिक जागृति का घोष था।

महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष

डॉ. अंबेडकर भारतीय नेतृत्व में प्रारंभिक और प्रमुख नारीवादी विचारकों में से एक थे। उन्होंने न केवल हिंदू कोड बिल के माध्यम से महिलाओं को संपत्ति और तलाक के अधिकार दिलाने की कोशिश की, बल्कि समान वेतन और मातृत्व लाभ जैसे मुद्दों पर भी आवाज उठाई। हिंदू कोड बिल पारित न होने पर उन्होंने अपने मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया — यह दर्शाता है कि उनके लिए सिद्धांत सत्ता से अधिक महत्वपूर्ण थे।

राजनीति में नायक पूजा के प्रति चेतावनी

डॉ. अंबेडकर ने भारतीय लोकतंत्र के लिए नायक पूजा (Hero Worship) को एक गंभीर खतरा बताया था। उन्होंने कहा था, “राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा, लोकतंत्र के लिए खतरा है और अंततः तानाशाही का मार्ग खोल सकती है।”
उनकी यह चेतावनी आज भी अत्यंत प्रासंगिक है, जब हम राजनीति में व्यक्तिवाद की बढ़ती प्रवृत्ति को देखते हैं।

धार्मिक रूढ़ियों के खिलाफ क्रांतिकारी कदम

डॉ. अंबेडकर ने 1927 में मनुस्मृति दहन कर सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध अपनी असहमति प्रकट की। उनका स्पष्ट विचार था कि जब तक धर्म सामाजिक असमानताओं को समर्थन देता रहेगा, लोकतंत्र केवल एक दिखावा रहेगा। उन्होंने हिन्दू धर्म की कठोर आलोचना की और समाज के पुनर्गठन की वकालत की थी, जिससे समानता और बंधुत्व की भावना स्थापित हो सके।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आज का भारत

भारतीय संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी, लेकिन क्या आज हर भारतीय नागरिक वास्तव में इस अधिकार का उपयोग कर पाता है? वर्तमान में जब सामाजिक सच्चाइयों को उजागर करने वाली फिल्मों और अभिव्यक्तियों का विरोध होता है (जैसे हाल ही में “फुले” फिल्म का विरोध), यह सवाल उठता है कि क्या हम डॉ. अंबेडकर के सपनों का भारत बना पाए हैं?

राजनीतिक बनाम सामाजिक लोकतंत्र का द्वंद्व

डॉ. अंबेडकर ने 1949 में चेतावनी दी थी कि भारत में राजनीतिक लोकतंत्र तो स्थापित हो जाएगा, लेकिन सामाजिक और आर्थिक समानता यदि नहीं आई तो यह लोकतंत्र कमजोर हो जाएगा। आज भी जातिगत भेदभाव, धार्मिक असहिष्णुता और आर्थिक विषमता जैसी समस्याएँ यह साबित करती हैं कि हमारा लोकतंत्र अभी भी असंतुलित है।

डॉ. अंबेडकर का अधूरा सपना

डॉ. अंबेडकर का राष्ट्र निर्माण में योगदान केवल संविधान निर्माण तक सीमित नहीं है। वह सामाजिक न्याय के प्रहरी, महिलाओं के अधिकारों के पैरोकार, और लोकतंत्र के सच्चे संरक्षक थे। उन्होंने भारत को एक ऐसा रास्ता दिखाया था जो समानता, न्याय और स्वतंत्रता पर आधारित हो। परंतु आज भी उनका सपना पूरी तरह से साकार नहीं हुआ है। उनका संदेश, उनकी चेतावनियाँ, और उनका संघर्ष हमें आज भी प्रेरणा देते हैं कि हमें निरंतर प्रयासरत रहना होगा।

“जिस कारवां को मैंने आगे बढ़ाया है, वह रुके नहीं, निरंतर आगे बढ़ता रहे।” — डॉ. अंबेडकर

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